मोहर्रम पर पाबंदी के साथ इन कारोबार पर पड़ेगा असर, अरबों का होगा नुकसान
अपडेट हुआ है:
मोहर्रम न होने से अरबों रुपये का नुकसान होना तय है। इन दिनों में हजारों लोगों को मिलने वाले रोज़गार भी असर पड़ेगा। आइए आपको पूरा मामला समझाते हैं।
जौनपुर। हज़रत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन की शहादत की याद में होने वाले मोहर्रम पर भी कोरोना का संकट है। इस बार मोहर्रम पर पिछले वर्षों की तरह जुलूस, मजलिस नहीं हो पाएगी।ऐसे में व्यापार को मोहर्रम न होने से अरबों रुपये का नुकसान होना तय है। इन दिनों में हजारों लोगों को मिलने वाले रोज़गार भी असर पड़ेगा।
मोहर्रम क्या है ?
यूपी के बस्ती के रहने वाले मौलाना हैदर मेहदी रिज़वी ने बताया कि मोहर्रम ग़म है, ये कोई त्योहार नहीं है। 1400 वर्ष पहले हज़रत मोहम्मद साहब के नवासे हज़रत इमाम हुसैन अपने 71 साथियों जिसमें उनका छह माह का बेटा भी था, ईराक के शहर करबला में शहीद कर दिए गए। तभी से मुसलमान उनके ग़म में 2 महीना 8 दिन यानि उर्दू कलेंडर के मुताबिक मोहर्रम, सफ़र और रबीअव्वल के महीने में ग़म मनाते हैं।
इस दौरान अधिकतर लोग काला लिबास पहनते हैं। महिलाएं अपनी सुहाग की निशानी जैसे चूड़ी और नथ वैगरह उतार देती हैं। इन दिनों में घर से लेकर इमामबाड़ों में मजलिसों का आयोजन होता है। इतना ही नहीं शहर में बड़े पैमाने पर जुलूस भी निकाला जाता है। ये सिलसिला जैसा की पहले बताया गया कि 2 महीना 8 दिनों तक चलता है।
मोहर्रम में जब कहीं भी मजलिस होती है तो वहां तबर्रुक यानि प्रसाद वितरित किया जाता है। ये प्रसाद की कीमत प्रति व्यक्ति 5 रुपये से 200 रुपये तक होती है। हजारों सैकड़ो हलवाई दिन रात काम करके तबर्रुक में बंटने वाले सामान बनाते हैं। इतना ही नहीं लोग पैक सामान भी बांटते हैं। इसमें बिस्किट से लेकर मीठा तक होता है।
जौनपुर के रहने वाले गुड्डू हलवाई का कहना है कि अभी तक मोहर्रम के सैकड़ों आर्डर मिल जाते थे। हर वर्ष मोहर्रम में करीब 2 से 3 लाख तक की इनकम हो जाती थी। हालांकि इस बार अभी तक आर्डर ही नहीं मिलें हैं आगे क्या होगा, इस पर नज़र रखे हुए हैं। यहां आप समझ लें कि ये सिर्फ एक हलवाई की बात है एक—एक शहर में ऐसे सैकड़ों हलवाई की रोज़ी—रोटी पर असर पड़ेगा।
जुलूसों में इमाम हुसैन की याद में अलम, ताबूत, दुलदुल सजाया जाता है। एक—एक जुलूसों में ही लोग हजारों रुपयों के फूल—माला चढ़ा देते हैं। प्रसाद अलग से चढ़ता है। वाराणसी के रहने वाले माली अब्दुल जब्बार कहते हैं कि मोहर्रम में फूल मंडी से प्रत्येक जुलूसों के लिए लाखों रुपये का फूल चढ़ता है। जब मोहर्रम नहीं होगा तो लाज़िमी है कि उनका नुकसान होगा ही।
वहीं इनमें सबसे महत्वपूर्ण ताज़िया का कारोबार है। एक ताज़िया जिसकी कीमत 50 रुपये से शुरू होकर 10 हज़ार तक होती है। एक—एक घर में लोग कई—कई ताज़िया मोहर्रम की नौ तारीख़ को रखते हैं। इजाज़त न मिलने पर इस कारोबार भी बहुत असर पड़ेगा। ताज़िया कारोबारी महशर हुसैन का कहना है कि अभी तय नहीं कर पाएं हैं कि ताज़िया बनाएं या नहीं। अकेले जौनपुर शहर में ही छोटे—बड़े मिलाकर करीब 50 हज़ार से अधिक ताज़िया बनाया जाता है। यहां आपको बताते चलें कि ताज़िया इमाम हुसैन के रौज़े यानि मकबरे की शबीह छवि होती है।
बात करें लखनउ में बनने वाले अलम के पंजो और दूसरे तबर्रुकात की तो इस पर भी काफी असर पड़ा है। अलम का पंजा बनाने वाले राम कुमार बताते हैं कि बहुत से लोग स्टील और पीतल का पंजा बनवाते हैं। इसकी किलो और फिनिशिंग पर तय होती है। एक औसत पंजा जो दिखने में अच्छा लगे वो 3000 हज़ार रुपये का होता है। जबकि लोग अपनी हैसियत के मुताबिक 10 हज़ार तक का बनवाते हैं। उन्होंने ने भी बताया कि इस बार आर्डर एक—दुक्का मिले हैं। जबकि अब तक उनके पास सैकड़ों आर्डर आ जाते थे वो आर्डर लेना भी बंद कर देते थे। पंजा जुलूसों में उठने वाले अलम के उपरी हिस्से पर लगता है।
बता दें कि देश में जहां सबसे ज़्यादा मोहर्रम प्रमुखता से मनाया जाता है उनमें तीन शहर हैदराबाद, लखनउ, जौनपुर का नाम लिया जाता है। इसके अलावा यूपी के लगभग हर शहर में मजलिस—मातम का आयोजन होता है। इसी तरह मुबई हो या फिर दिल्ली यहां भी लोग मोहर्रम के जुलूसों में बढ़—चढ़कर भाग लेते हैं। देश के अधिकरत शहरों और ग्रामीण इलाकों में शिया—सुन्नी मोहर्रम अपने—अपने तरीके से मानते हैं।
यूपी सरकार ने पिछले दिनों गाइड लाइन जारी कर ये कह दिया था कि मोहर्रम में ताज़िया और जुलूस पर पाबंदी रहेगी। इसके बाद धर्मगुरु कल्बे जव्वाद ने उनसे मुलाकात कर इस गाइडलाइन में थोड़ी ढील की मांग की थी। इसी तरह दूसरे धर्म गुरुओं और अलग—अलग शहर में डीएम और एसपी से मिलकर इसी तरह की मांग कर रहे हैं। अब तक सैकड़ों ज्ञापन सौंपा जा चुका है।