सरकारी Vs प्राइवेटः भारत में सीरिया-लीबिया से हालात पैदा कर सकता है निजीकरण, एक पाठक की चिट्ठी
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जहां यूरोप में ग्रीस जैसा छोटा स्टेट पूरी तरह धराशायी हो गया था, वहीं अमेरिका में सब प्राइम क्राइसिस से कर्जदार दिवालिया हो गए। बैंक फेल होते गए।
बजट 2021 में दो पब्लिक सेक्टर बैंकों के निजीकरण की घोषणा के बाद बैंक यूनियन सरकार के इस फैसले के खिलाफ लामबंद हैं। 19 फरवरी से पहले विरोध प्रदर्शन की तैयारी है जो कि 15-16 मार्च की दो दिवसीय हड़ताल तक पहुंच सकता है।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस शैली का परिचय दिया, उससे साफ है कि सरकार अपने फैसलों से पीछे हटने वाली नहीं है। हमने अपनी 'सरकारी Vs प्राइवेट' शृंखला के तहत पाठकों से अपने विचार साझा करने का आग्रह किया था। इसी कड़ी में हमें हमारे पाठक राहुल का पत्र मिला। राहुल एक सरकारी बैंक में कार्यरत हैं और निजीकरण को लेकर उनके पत्र का संपादित अंश हम आपसे साझा कर रहे हैं-
निजीकरण से ना केवल बैंक कर्मचारियों की नौकरियां असुरक्षित होंगी बल्कि सरकारी बैंकों में जमा जनता का धन भी यस बैंक, लक्ष्मी विलास बैंक या फिर पीएमसी बैंक में जमा धन की तरह असुरक्षित हो जाएगा। 2008 की मंदी भी सबको याद है, जब अमेरिका जैसे देश के निजी क्षेत्र के दिग्गज बैंक पूरी तरह दिवालिया हो गए थे।
मंदी का आलम ये था कि एशिया महाद्वीप से लेकर अमेरिका यूरोप तक सभी छोटे बड़े देश मंदी की चपेट में थे। जहां यूरोप में ग्रीस जैसा छोटा स्टेट पूरी तरह धराशायी हो गया था, वहीं अमेरिका में सब प्राइम क्राइसिस से कर्जदार दिवालिया हो गए। बैंक फेल होते गए।
दूसरी और भारत देश की अर्थव्यवस्था में इस मंदी का कोई व्यापक असर नहीं हुआ। कारण स्प्ष्ट हैं कि वर्ष 2008 व इसके पहले से ही भारत की अर्थव्यवस्था मुक्त बाजार की अपनी विशिष्टता को संजोते हुए भारत सरकार द्वारा स्थापित संस्थाओं के नियंत्रण व निगमन में थी।
भारत की अर्थव्यवस्था कभी भी पूर्णतया बाजार घटकों पर निर्भर नहीं रही, जिसका फायदा ये हुआ कि इतिहास की कभी भी कोई भी मंदी देश की अर्थव्यवस्था को चौपट ना कर पाई। किंतु वर्तमान की मोदी सरकार भारत के अर्थतंत्र को उद्योगपतियों अथवा कुछ चुनिंदा व्यवसायिक घरानों के हाथों सौंप देना चाहती है जिनके किसी व्यवसायिक घाटे की कीमत देश की जनता को चुकाना पड़ सकती है।
जो कि आबादी के लिहाज से छोटे पड़ गए भारत देश के भविष्य के लिए कदापि उचित नहीं है। मंदी जैसी स्थिति में जहां दूसरे देश धीरे-धीरे उबर रहे होंगे तब संसाधनों के अभाव में भारत देश मे गृहयुद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो चुकी होगी। हम शायद सीरिया लीबिया बन चुके होंगे।
(पत्र में लिखे विचार पाठक के निजी हैं, भारत दीप इसकी प्रामाणिकता का दावा नहीं करता है, न ही इससे सहमति या असहमति व्यक्त करता है। पाठक की निजता का सम्मान हमारी प्राथमिकता है।)