जिस वीर ने देश के लिए सबकुछ लुटा दिया, हम आज उसकी कब्र का निशां भूल गए हैं

सैयद खादिम अब्बास रिजवी |
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आबाई मोहल्ले में लोगों से चंदा इकट्टठा कर और बाद में नगर पालिका की मदद से स्मारक का निर्माण कराया गया।
आबाई मोहल्ले में लोगों से चंदा इकट्टठा कर और बाद में नगर पालिका की मदद से स्मारक का निर्माण कराया गया।

जब पहली बार मुज्तबा हुसैन कांग्रेस अधिवेशन में वॉलेंटियर बनकर गए थे। यहीं पर उनके अंदर आज़ादी के लिए ऐसा जुनून चढ़ा की उन्होंने ठान लिया कि देश के लिए कुछ करना है। वह गदर पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के नेता थे।

जौनपुर। देश आज 74वां स्वतंत्रता दिवस मना है, पर हमें ये आज़ादी यूं ही नहीं मिली है। इसके लिए हमारे पूर्वजों ने अपना ख़ून बहाया है। वो कुर्बानियां पेश की हैं, जिसे सुनकर कई बार तो रूह कांप उठे। बहुत से वीरों के बारे में हमें पता है कि उन्हें देश के लिए क्या किया। हालांकि कुछ ऐसे भी हैं जिनके बारे में शायद हमने कभी सुना नहीं लेकिन उनका भी देश की आज़ादी में लहू शामिल है। आज ऐसे ही वीर के बारे में आपको बताने जा रहे हैं जो अतीत के पन्नों में कहीं खो से गए हैं, उनका नाम है मुज्तबा हुसैन।

दीवानी न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता जेपी कामरेड जौनपुर ज़िले के चितरसारी मोहल्ला निवासी मुज्तबा हुसैन को याद करते हुए बताते हैं कि वर्ष 1905 की बात है। जब पहली बार मुज्तबा हुसैन कांग्रेस अधिवेशन में वॉलेंटियर बनकर गए थे। यहीं पर उनके अंदर आज़ादी के लिए ऐसा जुनून चढ़ा की उन्होंने ठान लिया कि देश के लिए कुछ करना है। वह गदर पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के नेता थे। 

उस वक्त कानपुर क्रांतिकारियों का सेंटर माना जाता था। वह जौनपुर से कानपुर चले गए। वहां पोर्ट आफ वार्ट में नौकरी कर ली और क्रांतिकारियों के बारे में जानकारी इकट्टठा करना शुरू कर दी। कुछ वर्ष बाद नौकरी छोड़कर वह अमेरिका के सेंट फ्रांसिसको चले गए। तब भी अमेरिका और कनाडा में लोकतंत्र था। लोगों को अपनी बात कहने की आज़ादी थी। बहुत से आज़ादी के दीवाने वहीं से भारत को आज़ाद कराने की मुहिल में लगे थे। मुज्तबा हुसैन भी वहां चले गए और उस मुहिम में लग गए। 

उस वक्त बर्मा भारतीय सैनिकों का एक बड़ा केंद्र था। मुज्तबा हुसैन, सोहनलाल पाठक और एक अन्य क्रांतिकारी को ये ज़िम्मेदारी मिली कि बर्मा में भारतीय सैनिकों के अंदर देश के लिए जज़्बात को भड़काएं। उन लोगों ने ऐसा करने में कामयाबी भी हासिल की और फिर बर्मा में विद्रोह हो गया। काम ख़त्म करने के बाद ये लोग वहां से जाना चाहते थे लेकिन रास्ते में गिरफ़्तार कर ​लिए गए। 

इन लोगों पर मुकदमा चला और सोनलाल पाठक को फांसी पर लटका दिया गया। मुज्तबा हुसैन पर एक और मुकदमे का ट्रायल चल रहा था, लिहाज़ा उन्हें कैदी ही रखा गया। 1921 में प्रिंस आफ वेल्स भारत आए। तब उनके सम्मान में बहुत से क़ैदियों की सज़ा कम की गई। मुज्तबा हुसैन की फांसी की सज़ा को बदलकर उम्रक़ैद में तब्दील कर दी गई और फिर उन्हें काला पानी अंडमान निकोबार भेज दिया गया। 

यहां कैदियों की संख्या ज़्यादा होने के कारण और मुज्तबा हुसैन की बेहतरीन प्रवक्ता वाली छवि को देखते हुए ये तय किया गया कि सारे कैदियों को उनके गृह जनपद भेज दिया जाए। तब उन्हें फ़ैजाबाद की जेल में डाल दिया गया। हालांकि उन्हें जिस सेल में डाला गया वहां से बाहर निकलने इजाज़त नहीं थी। ये सेल इतना छोटा था कि वह न तो सही से बैठ पाते थे न ही लेट पाते थे। वर्ष में एक बार जेल के अंदर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होता था। सारे कैदी इसमें हिस्सा ले रहे थे। 

एक कैदी ने तब उसी जेल में बंद कम्युनिस्ट पार्टी के नेता रुस्मत सैटिन से मुज्तबा हुसैन के बारे में जानकारी दी। सैटिन के कहने पर जेलर बमुश्किल तैयार हुआ और मुज्तबा हुसैन को सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने की इजाज़त दी। जब वह सेल से बाहर आए तो चित लेट गए और आमसान पर तारों को निहारने लगे। जब उनसे पूछा गया कि आप ऐसा क्यूं कर रहे हैं तो उनका जवाब था कि मेरे लिए यही बहत है कि मैं आज खुले आसमान को कई वर्षों के बाद देख पा रहा हूं। 

आज़ादी के बाद उन्हें जेल से रिहाई मिली तो वह अपने जनपद जौनपुर आए। बंटवारा भी हो चुका था तो उनके रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए थे। इस वजह से उनकी ज़मीन—जायदात पर किसी और का कब्ज़ा हो गया था। इसके लिए उन्होंने मुकदमा भी किया था। हालांकि उन्हें ये हासिल हुई इस बारे में बहुत सटीक जानकारी नहीं मिल सकी है। जेल में रहकर उनके शरीर के कई हिस्सों पर ऐसे गट्ठे पड़ गए थे कि उसमें सुई चुभोई जाए तो भी उन्हें दर्द नहीं होता था। कांग्रेस सरकार उन्हें पांच रुपये बतौर पेंशन देती थी। 

अधिवक्ता जेपी कामरेड ने बताया कि उनके आबाई मोहल्ले में लोगों से चंदा इकट्टठा कर और बाद में नगर पालिका की मदद से एक स्मारक का निर्माण कराया गया। ताकि उनके बारे में हमारी आने वाली पीढ़ी को जानकारी रहे। उनका निधन 3 अगस्त 1953 को हुआ था। इसके बाद उन्हें बेग़मगंज स्थित सदर इमामबाड़ा के दक्षिणी गेट के पास सुपुर्द—ए—ख़ाक कर दिया गया। हालांकि आज आलम ये है कि किसी को भी उनकी कब्र का निशान याद नहीं है। 


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