प्रथा या कुप्रथा : जाने क्यों इस गांव की महिलाएं हाथ में लेकर चलती है चप्पल
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250 घरों की आबादी वाले आमेठ गांव की आबादी 1150 है, इसमें 600 पुरुष व 350 महिलाएं हैं, जबकि बाकी बच्चे हैं। आमेठ गांव में सैकड़ों सालों से एक प्रथा चली आ रही है। इसके तहत बड़े व बुजुर्गों के मान-सम्मान में गांव की महिलाएं उनके सामने चप्पल पहनकर नहीं जा सकतीं। यहां तक कि उनके घरों के सामने से भी चप्पलें पहनकर नहीं गुजर सकतीं।
परंपरा डेस्क। पर्दा प्रथा अब देश के चुनिंदा गांवों में ही बची है। ऐसे ही चुनिंदा शहरों में से एक है श्योपुर, वैसे तो श्योपुर शहर परंपरा और सांस्कृतिक रूप से राजस्थान के करीब है, लेकिन यह मध्यप्रदेश का सबसे पिछड़ा जिला के रूप में गिना जाता है।
यहां आदिवासियों के कई कुनबे पाए जाते है। जितने कुनबे उतनी प्रथाएं है। श्योपुर के एक गांव में ऐसी भी प्रथा है, जिसमें महिलाओं को न सिर्फ बुजुर्गों के मान-सम्मान में घूंघट लेने पड़ते है बल्कि, उनके सामने चप्पल तक नहीं पहन सकती।
यह अनोखी प्रथा वाला गांव श्योपुर से तकरीबन 65 किमी तो कराहल से करीब 15 किमी दूर बसा आमेठ है।250 घरों की आबादी वाले आमेठ गांव की आबादी 1150 है, इसमें 600 पुरुष व 350 महिलाएं हैं, जबकि बाकी बच्चे हैं।
आमेठ गांव में सैकड़ों सालों से एक प्रथा चली आ रही है। इसके तहत बड़े व बुजुर्गों के मान-सम्मान में गांव की महिलाएं उनके सामने चप्पल पहनकर नहीं जा सकतीं। यहां तक कि उनके घरों के सामने से भी चप्पलें पहनकर नहीं गुजर सकतीं। ऐसे में महिलाएं गांव के भीतर बिना चप्पलों के नंगे पैर ही घूमती हैं। यह प्रथा वैसे तो आदिवासी समाज की है।
राजा बिट्ठल दा ने बसाया था आमेठ को
आमेठ गांव को लगभग एक हजार साल पहले राजा बिट्ठल दा ने बसाया था। इसकी सीमा में बरगवां, गोरस, पिपराना, कर्राई सहित कराहल क्षेत्र का 30 किमी इलाका था। राजा बिट्ठल दा के जमाने से ही महिलाओं को चप्पल पहनने पर पाबंदी है।
इसमें महिला न तो बुजुर्गों के सामने से चप्पल पहन सकती थी और न ही उनके घरों के आगे से चप्पल पहनकर निकलती थीं। इसी प्रथा को गांव के आदिवासी समाज ने आज तक जिंदा रखा है।
हाथ में चप्पल लेकर जाती महिला
इस प्रथा का पालन करने के लिए इस गांव की महिलाएं अधिकतर जब गांव से निकलती है, तो सिर पर घूंघत तो करती ही है, इसके अलावा चप्पल को हाथ में लेकर चलती है। ताकि अगर कोई बुजुर्ग सामने आ जाए तो उससे प्रथा तोड़ने का पाप न हो सके।
मथुरा पटेल का कहना है कि यह हमारे समाज की रीति है, जो हजारों सालों से चली आ रही है,अन्य गांवों के लोग इस रीत को मानते है या नहीं। मुझे नहीं पता। वहीं गांव की आंगनबाड़ी में काम करने वाली रानी यादव का कहना है कि मुझे भी गांव के लोग चप्पल पहनकर गांव में नहीं घुसने देते है।
मैं भी आंगनबाड़ी केन्द्र पर नंगे पैर ही आती-जाती हूं।आमेठ गांव के सरपंच बाबूलाल आदिवासी का कहना है कि गांव में महिलाओं को चप्पल पहनने की इजाजत नहीं है। यह कोई नियम नहीं है बल्कि आदिवासी समाज की प्रथा है।
प्रथा तोड़ीं तो सिर पर रखनी पड़ेगी चप्पल
वैसे तो आमेठ गांव की अधिकतर महिलाएं अपनी प्र्था का बखूबी पालन करती है। आज तक प्रथा तोड़ने का मामला बहुत कम आया है। फिर भी यदि किसी महिला ने गलती से प्रथा तोड़ दी, या चप्पल पहनकर किसी बड़े बुजुर्ग के सामने चली जाती है तो महिला को सजा के तौर पर अपनी चप्पल सिर पर रखकर घर तक जाना पड़ता है।