ए वतन इक रोज तेरी खाक में खो जाएंगे, सो जाएंगे... अलविदा राहत साहब
राहत इंदौरी का बचपन मुफलिसी में बीता। उनके पिता रफतुल्लाह कुरैशी एक मिल में काम करते थे। पिता की नौकरी छूट जाने के कारण उनको बेघर भी होना पड़ा। ऐसे में जिंदगी से जो दर्द उन्होंने पाए वे उनकी शायरी की आवाज बन गए।
साहित्य डेस्क। ए वतन इक रोज तेरी खाक में खो जाएंगे, सो जाएंगे, मर के भी रिश्ता नहीं टूटेगा हिंदुस्तान से, ईमान से। हिंदी उर्दू शायरी के नायाब रत्न मरहूम शायर डाॅ. राहत इंदौरी का ये शेर बताने के लिए काफी है कि उनकी शायरी में महबूबा के अलावा वतन के लिए भी मोहब्बत झलकती थी।
1 जनवरी 1950 को जन्मे राहत इंदौरी का बचपन मुफलिसी में बीता। उनके पिता रफतुल्लाह कुरैशी एक मिल में काम करते थे। पिता की नौकरी छूट जाने के कारण उनको बेघर भी होना पड़ा। ऐसे में जिंदगी से जो दर्द उन्होंने पाए वे उनकी शायरी की आवाज बन गए। इसीलिए वे लिखते हैं-
दो गज सही ये मेरी मिल्कियत तो है।
ए मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया।।
राहत इंदौरी के बचपन का नाम कामिल था। भोपाल की बरकतुल्लाह यूनिवर्सिटी से उर्दू में एमए किया। इसके बाद उर्दू में पीएचडी भी की। वे शायर होने के साथ-साथ पेंटर और डिग्री कालेज में प्रोफेसर भी रहे। उर्दू भाषा का उनका वृहद ज्ञान और पेंटिंग की बारीकियां उनकी शायरी में झलकती थीं। पढ़िए-
मेरे हुजड़े में नहीं और कहीं पर रख दो।
आसमान लाए हो ले आओ जमीं पर रख दो।
अब कहां ढूंढने जाओगे हमारे कातिल,
आप तो कत्ल का इल्जाम हमीं पर रख दो।
राहत साहब ने निजी जिंदगी में दो निकाह किए। उनका पहला निकाह अंजुम रहबर से हुआ। वे भी एक मशहूर शायरा हैं। इसके बाद उन्होंने सीमा राहत से दूसरा निकाह किया। एक शायर आशिक जरूर होता है। आशिकी में मिले दर्द को राहत साहब अपनी गजल में ऐसे लिखते हैं-
पहली शर्त जुदाई है।
इश्क बड़ा हरजाई है।
दिल पर किसने दस्तक दी।
तुम हो या तन्हाई है।
राहत इंदौरी निडर होकर लिखते थे। उनके लिखे शेरों में मोहब्बत के साथ-साथ सत्ता से आंख मिलाकर बात करने की ताकत भी थी। सच को सच की भाषा में कहना उनका हुनर था, इसीलिए वर्तमान राजनीतिक शुचिता पर उन्होंने लिखा-
बन के इक हादसा बाजार में आ जाएगा।
जो नहीं होगा वो अखबार में आ जाएगा।।
चोर-उचक्कों की करो कद्र के मालूम नहीं,
कौन कब कौनसी सरकार में आ जाएगा।।
इंसानी रूह से ज्यादा राहत साहब को अपने वतन से मोहब्बत थी। हिंदुस्तान में बढ़ते सांप्रदायिकवाद पर वे हमेशा चिंतित रहे। इस पर उन्होंने शायरी के जरिए बेबाक टिप्पणी की। बाद में उनका ये शेर इतना लोकप्रिय हुआ कि इसे सांप्रदायिक लोगों में भी अपनी तरीके से इस्तेमाल किया-
जो आज साहिब-ए-मसनद हैं कल नहीं होंगे।
किराएदार हैं जाती मकान थोड़ी है।
सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में,
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।
यूं तो राहत साहब का मंचीय सफर 50 साल का है लेकिन आज की युवा पीढ़ी ने उन्हें अधिकतर हिंदी के प्रसिद्ध कवि डाॅ. कुमार विश्वास के साथ देखा होगा। आज उनके इंतकाल पर डाॅ. कुमार विश्वास ने राहत साहब के ये शेर लिखकर उन्हें याद किया-
जनाजे पर मिरे लिख देना यारो,
मोहब्बत करने वाला जा रहा है।